मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह में नर्मी का मिज़ाज और एडजस्टमेंट बहुत था। -DR. ANWER JAMAL

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मैंने जवानी में क़दम रखा ही था कि मुझे तफ़्हीमुल क़ुरआन मिल गई।

मैंने उसकी सारी मोटी मोटी जिल्दें पढ़ दीं।

मैंने उसमें पढ़ा कि 'जो अल्लाह के उतारे हुए हुक्म के मुताबिक फैसला न करें वही काफ़िर, ज़ालिम और फ़ासिक़ हैं।'

देखें पवित्र क़ुरआन 5:45-47

मैंने चारों तरफ़ देखा तो लोग अपनी रस्मो रिवाज और अपनी आदत और अपनी अटकल के मुताबिक़ अपनी ज़िंदगी में फ़ैसले कर रहे थे,

बस एक मैं ही था, जो मैं अपने फ़ैसले अल्लाह के हुक्म के मुताबिक़ कर रहा था। मैंने अपने चारों तरफ़ ज़ालिमों, फ़ासिक़ों और काफ़िरों की भरमार देखी। 

अब इन सब लोगों पर वे आयतें आसानी से फ़िट हो जाती हैं,

जिनमें इन्हें दुनिया में ज़लील होने और मरने के बाद जहन्नम में जाने की पेशगी ख़बर दी गई है।

इसके बाद मैंने इन्हें ज़िल्लत और आग से बचाने के लिए इस्लाह शुरू कर दी लेकिन उससे कुछ ज़्यादा फ़र्क़ न पड़ा। लोग जैसे थे, वैसे ही रहे। मेरे नज़रिए में हर आदमी आग की तरफ़ जा रहा था। बड़े बड़े आलिम और यहाँ तक कि मेरे घर वाले भी आग की तरफ़ जाते हुए दिखे। जिससे मैं इतना डर गया कि मुझे डिप्रेशन हो गया। लोग जैसे थे, वैसे ही रहे। मैं बीमार हो गया। मुझे डा अनुज गोयल से ट्रीटमेंट लेना पड़ा।

फिर मैंने मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह को देखा। उनकी इस्लाही कोशिशों को देखा। एक दिन वह गुज़र गए लेकिन लोग जैसे थे, आज भी वैसे ही हैं। फ़ारूक़ साहब ने मुझे बताया था कि उनकी नाक से ख़ून आया था। शायद सोच के दबाव से उनके दिमाग़ की नस फट गई होगी। लोगों की भलाई की सोच में उनकी जान चली गई लेकिन लोग वैसे ही हैं, जैसे उनकी फ़िक्र और इस्लाह से पहले थे।

मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह में नर्मी बहुत ज़्यादा थी और उनके मिज़ाज में एडजस्टमेंट बहुत ज़्यादा था। वह किसी को काफ़िर, ज़ालिम और फ़ासिक़ न कहते थे।

उनमें सब्र बहुत था।

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समाज में क़ुबूलियत बहुत धीमी गति से होती है। इसलिए अगर आप आयतें फ़िट करके लोगों को काफ़िर, ज़ालिम और फ़ासिक़ बता दें और सोचें कि वे डरकर सही हो जाएंगे, तो ऐसा न होगा।

यह एक फ़तवा देना हुआ।

यह मिज़ाज समाज को तक़सीम करता आया है।

जिन पर आप ये आयतें फ़िट करेंगे,

वे आपकी कमी पकड़कर दूसरी आयतें आप पर फ़िट कर देंगे

और वे दूसरी आयतों से आपको ज़लील जहन्नमी साबित कर देंगे।

बस अब दीनी जमाअतों के आम लोग यही कर रहे हैं,

इस्लाह कम कर रहे हैं। लोगों के मसले हल करने के बजाय मसले बढ़ा रहे हैं।

ख़लीफ़ा, सरकार और सरकारी हाकिम सख़्ती कर सकते हैं लेकिन आम दाई और मुस्लेह सख़्ती न करे।

इससे दिलों में गुंजाइश ख़त्म होती है।

हम अपनी बात को केवल तथ्य के रूप में कह दें और

व्यक्ति पर तान और व्यंग्य न करें कि इन बातों से आपके इल्म का पता चल रहा है आदि आदि।

हर आदमी का इल्म कम है।

मैंने काफ़ी पढ़ा है

लेकिन इसके बवुजूद यही लगता है कि मैं ज़्यादा नहीं जानता और

फिर एक नई किताब पढ़ने बैठ जाता हूँ।

इंसान का इल्म कम है। ज़्यादा पढ़ने के बाद भी यह इल्म कम ही रहता है।

हम सबका इल्म कम है।

मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ख़ुद को बिना झिझके जाहिल कह देते थे।

जबकि वे आम समझ के आदमियों से और जाहिलों से यह बात कभी नहीं कहते थे। वह उन्हें उससे ज़्यादा सम्मान देते थे, जितना मैं किसी मुफ़्ती साहब और क़ाज़ी साहब को या शहर कोतवाल को देता हूँ।

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मैं आपको इकरामे मुस्लिम की तरफ़ तवज्जो दिला रहा हूँ।

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