Maulana Shams Naved Usmani Rahmatullhi alaih
ज्ञान और प्रेम
'ज्ञान की बात प्रेम से कहो।' यह मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह की एक ऐसी तालीम थी, जिसे वह हमारे सामने बार बार और बहुत ज़्यादा दोहराते थे।
मैंने अल्लामा सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहब के हुक्म पर आपके लिए मौलाना के बारे में यह ख़ास लेख लिखना शुरू किया तो मैंने चाहा कि शुरू में ही उनकी एक ऐसी तालीम पेश कर दूँ कि अगर आप यह लेख पूरा न पढ़ें और उनकी सिर्फ़ एक तालीम पर ही अमल कर लें तो आपकी ज़िन्दगी पूरी तरह बदल जाए। किसी अज़ीम बुज़ुर्ग की ज़िन्दगी के बारे में जानने का मक़सद यही होता है कि उनकी तालीम के नूर से हमारी ज़िन्दगी रौशन हो जाए।
मेरी आपसे रिक्वेस्ट है कि अगर आप सचमुच मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह के नज़रिये को जानना चाहते हैं और उनकी ख़ूबियों को पहचानना चाहते हैं तो आप सिर्फ़ एक दिन, आज के दिन 'ज्ञान की बात प्रेम से कहें।' आप किसी बुलंद शख़्सियत को तभी समझ सकते हैं जब आप भी उसी चेतना (शुऊर consciousness) में जीने लगें, जिसमें वह जीते थे। मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह 'प्रेम और ज्ञान की चेतना' में जीते थे।
आपके पास सिर्फ़ एक दिन, आज का दिन है। आपके पास सिर्फ़ एक पल, 'अब' है, जिसमें आप साँस ले रहे हैं। आप इस एक पल में सिर से पैर तक सिर्फ़ प्रेम और ज्ञान बन जाएं। हरेक से बिना शर्त प्रेम करें। कोई आपको बदले में शुक्रिया कहता है या नहीं, कोई आपका दोस्त है या दुश्मन, कोई अमीर है या ग़रीब, कोई किस मत-मज़हब, दीन-धर्म का मानने वाला है?; आप यह देखे बिना सबसे प्रेम करें और सबको ज्ञान दें। इससे आप अपने दिल में महसूस कर सकेंगे कि मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह कैसे थे!
मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह सिर से पैर तक बस प्रेम ही प्रेम थे। वह हरेक से प्रेम करते थे। यह उनका प्रेम ही होता था कि वह हरेक आदमी को पहली मुलाक़ात में ही अपनी सारी ज़िन्दगी की कमाई, मुतशाबिहाती इल्म (गूढ़ ज्ञान) और आत्म ज्ञान सौंप देते थे।
यह गूढ़ ज्ञान क़ुरआन, बाइबिल, वेद, गीता, गुरू ग्रंथ साहिब और हरेक धर्म ग्रंथ का वह दिव्य ज्ञान है, जिसे संकीर्णताओं के साथ समझा गया तो दुनिया में सैकड़ों दीन-धर्म होने का भ्रम पैदा हो गया; जिसकी वजह से इंसान के हाथ से इंसान का ख़ून बह रहा है और औरतों की आबरू लुट रही है। मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह इस जंग को इंसान की ख़ुदा से जंग क़रार देते थे। उनका मानना था कि इस जंग को रोकने के लिए संकीर्णताओं से मुक्त होकर उस गूढ़ ज्ञान को समझना ज़रूरी है, जो सब धर्म ग्रन्थों में एक है। यह उस नूर का ज्ञान है, जिसे अल्लाह ने सबसे पहले उपजाया और फिर उसी नूर से ज़मीनो आसमान की हर चीज़ को बनाया। वही एक नूर हर चीज़ में मौजूद है। वही नूर हिन्दू में है और वही नूर मुस्लिम में है। वही नूर शूद्र में है और वही नूर ब्राह्मण में है। वही नूर आप में है और वही नूर मुझ में है। यह यूनिवर्स नूर का एक अनंत समुद्र है और आप इस समुद्र की एक बूंद हैं। जब आप ख़ुद को इस रूप में पहचानते हैं तो आप ख़ुद को यूनिवर्स की हर चीज़ के साथ जुड़ा हुआ पाते हैं। यह सहज योग है, जो आपको हर चीज़ के साथ जुड़े होने का शुऊर (बोध) देता है।
यह बोध इंसान को अंदर और बाहर से पूरी तरह बदल देता है।
मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह अपनी पहली मुलाक़ात में ही यह बोध कराते थे। वह पहली मुलाक़ात में ही इंसान को बदलना शुरू कर देते थे। इंसान के बदलाव की शुरूआत उसके नज़रिए में बदलाव से होती है। इंसान का मानसिक नज़रिया उसके भौतिक हालात (physical reality) के रूप में ज़ाहिर होता है।
मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह सिर से पैर तक बस प्रेम ही प्रेम थे। वह हरेक से प्रेम करते थे। यह उनका प्रेम ही होता था कि वह हरेक आदमी को पहली मुलाक़ात में ही अपनी सारी ज़िन्दगी की कमाई, मुतशाबिहाती इल्म (गूढ़ ज्ञान) और आत्म ज्ञान सौंप देते थे।
यह गूढ़ ज्ञान क़ुरआन, बाइबिल, वेद, गीता, गुरू ग्रंथ साहिब और हरेक धर्म ग्रंथ का वह दिव्य ज्ञान है, जिसे संकीर्णताओं के साथ समझा गया तो दुनिया में सैकड़ों दीन-धर्म होने का भ्रम पैदा हो गया; जिसकी वजह से इंसान के हाथ से इंसान का ख़ून बह रहा है और औरतों की आबरू लुट रही है। मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह इस जंग को इंसान की ख़ुदा से जंग क़रार देते थे। उनका मानना था कि इस जंग को रोकने के लिए संकीर्णताओं से मुक्त होकर उस गूढ़ ज्ञान को समझना ज़रूरी है, जो सब धर्म ग्रन्थों में एक है। यह उस नूर का ज्ञान है, जिसे अल्लाह ने सबसे पहले उपजाया और फिर उसी नूर से ज़मीनो आसमान की हर चीज़ को बनाया। वही एक नूर हर चीज़ में मौजूद है। वही नूर हिन्दू में है और वही नूर मुस्लिम में है। वही नूर शूद्र में है और वही नूर ब्राह्मण में है। वही नूर आप में है और वही नूर मुझ में है। यह यूनिवर्स नूर का एक अनंत समुद्र है और आप इस समुद्र की एक बूंद हैं। जब आप ख़ुद को इस रूप में पहचानते हैं तो आप ख़ुद को यूनिवर्स की हर चीज़ के साथ जुड़ा हुआ पाते हैं। यह सहज योग है, जो आपको हर चीज़ के साथ जुड़े होने का शुऊर (बोध) देता है।
यह बोध इंसान को अंदर और बाहर से पूरी तरह बदल देता है।
मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह अपनी पहली मुलाक़ात में ही यह बोध कराते थे। वह पहली मुलाक़ात में ही इंसान को बदलना शुरू कर देते थे। इंसान के बदलाव की शुरूआत उसके नज़रिए में बदलाव से होती है। इंसान का मानसिक नज़रिया उसके भौतिक हालात (physical reality) के रूप में ज़ाहिर होता है।
सबसे बड़ा रहस्य यह है कि आपकी आत्मा के विश्वास और गुमान (core beliefs & assumptions) आपकी फ़िज़िकल रिएलिटी को जन्म देते हैं।
इंसान के साथ सबसे बड़ी ट्रैज्डी भी यही है कि यह बात सब लोग नहीं जानते कि उनके अंदर की दुनिया ही बाहर नज़र आती है। यह बात ज़्यादातर लोग नहीं जानते कि हर चीज़ और हर घटना उनके विश्वास और गुमान पर असर डालती है और उनका विश्वास और गुमान हर चीज़ और हर घटना पर असर डालता है। परिवार, स्कूल, राजनीति, साईन्स, कला, सिनेमा, खेल, युद्ध और शाँति; हरेक आपका मानसिक नज़रिए पर असर डालता है और आपका मानसिक नज़रिया भी इनमें से हरेक पर असर डालता है। जो चन्द लोग समाज को कन्ट्रोल करते हैं, वही समाज का मानसिक नज़रिया तय करते हैं कि लोग क्या सोचें? इसीलिए ज़्यादातर लोग एक बंधे हुए ढर्रे (pattern) पर सोचते हैं। यह मानसिक ग़ुलामी है, जिससे लोग अन्जान हैं। वे अपनी आत्मा में वही विश्वास और गुमान करते हैं, जो दूसरे उनके लिए तय करते हैं। वे कभी उन्हें चेक नहीं करते कि क्या यह सत्य है? क्या इसमें उनका कल्याण है?
मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह समाज के ढर्रे से अलग सोचते थे। वे हमेशा अपने विचार को चेक करते थे कि क्या यह सत्य है? क्या यह कल्याणकारी (फ़लाहबख़्श) है? जब वह किसी विचार को सत्य और कल्याणकारी पाते थे, तभी वह उस पर विश्वास करते थे और दूसरों को बताते थे। यही वजह थी कि जब आम लोग धर्म को मिटता हुआ देख रहे थे, तब मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह नई क़ौम को धर्म में दाख़िल होते हुए देख रहे थे। जब आम लोग मस्जिद को नादान लोगों के हाथों टूटते हुए देख रहे थे, तब वह अपनी आत्मा में देख रहे थे कि ज्ञानी लोग मंदिरों में नमाज़ पढ़ रहे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि हरेक प्राचीन मंदिर भी वैसे ही काबा के रूख़ पर बना हुआ है, जैसे कि मस्जिदें बनी हुई हैं। वे जान चुके हैं कि नमाज़ संस्कृत का शब्द है, जिसका अर्थ 'अजन्मे परमेश्वर को नमन' करना है। जिसकी शिक्षा गीता के छठे अध्याय में मौजूद है।
मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह अपनी आत्मा में यह सीन इतना क्लियर और लाईव देखते थे कि जब वह उसका बयान करते थे तो उनके साथ हम भी उस सीन को अपनी आत्मा में बिल्कुल साफ़ देखते थे। इस तरह मौलाना अपनी और हमारी आत्मा की शक्ति को एक नई दुनिया की रचना में लगाते थे, जो कि अभी भविष्य के गर्भ में है लेकिन हमने उसकी प्रसव वेदना मौलाना के चेहरे पर देखी है। हमारा यह 'विश्वास' है कि अपने ठीक समय पर जब उनकी देखी हुई घटनाएं जन्म लेंगी, तब आप सब उन्हें बाहर देखेंगे। जो आप देखते हैं, उसे आप जन्म देते हैं। आज क्वांटम फ़िज़िक्स डबल स्लिट एक्सपेरिमेंट के बाद यह कहती है कि यूनिवर्सल एनर्जी 'आब्ज़र्वर इफ़ेक्ट' क़ुबूल करती है।
जब मौलाना वेद का गूढ़ ज्ञान (मुतशाबिहाती इल्म) बताते थे और लोग उनकी तारीफ़ करते थे, तब मौलाना बहुत नर्मी और दीनता से कहते थे कि मैं वेद का ज्ञानी नहीं हूँ। मुझे वेदना होती है तो मैं यह सब आपको बताता हूँ। उस वक़्त उनकी आँखें नम होती थीं और उनके चेहरे पर सचमुच वेदना दिखती थी। इस वेदना के हाल में जब वह किसी से कोई बात कहते थे तो सुनने वाला चाहे जितना बड़ा ज्ञानी पंडित हो, वह हमेशा उनकी बात मानता था।
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने जब उनकी पत्रिका मार्गदीप पढ़ी तो उन्होंने ख़त लिखकर उन्हें मिलने के लिए हरिद्वार बुलाया। मौलाना ने मुझे बताया कि मैंने पंडित जी से कहा-'पंडित जी! आप तो सब जानते हैं। क्या आप भी मेरा साथ नहीं देंगे?
यह कहकर मैं रो पड़ा। मुझे रोता देखकर पंडित अपनी कुर्सी से खड़े हो गये और उन्होंने मुझसे कहा-'मौलाना आप काम कीजिए। मैं आपका साथ दूंगा।' उसके बाद उनकी पत्रिका 'अखण्ड ज्योति' में मूर्ति पूजा के खण्डन में और एकेश्वरवाद के समर्थन में लेख आये। उन्होंने इस्लाम की प्रशंसा में भी लेख लिखे। जिनसे समाज के सामने सत्य आने लगा था। ऐसा तब तक हुआ जब तक यह मशहूर न हो गया कि पंडित जी ने साधना के लिए समाधि ले ली है।
जो लोग मौलाना की किताबें पढ़ चुके हैं या शाँति और सद्भाव के तरबियती कैम्प कर चुके हैं, वे यह जान चुके हैं कि सब लोगों को 'क्या' बताना है?
इस वाक़ये से आप अब यह भी जान सकते हैं कि मौलाना उन बातों को 'कैसे' बताते थे!
...और कहीं कहीं तो सिर्फ़ एक लाईन ही बोलते थे और सुनने वाला मौलाना के साथ जुड़ जाता था।
मौलाना 'दिल से' बताते थे। जिसकी वजह से उनकी बात सुनने वाले के दिल में उतर जाती थी। मैं दीनी और कल्याणकारी प्रचार करने वाले सभी भाई बहनों से रिक्वेस्ट करता हूँ कि आप सभी 'दिल से' बताने के इस तरीक़े की ख़ूब प्रैक्टिस कर लें।
जब एक बात लाजिक पर पूरी होती है तो वह लाजिकल माइंड को अपील करती है जो कि 10% है। जब उसी बात को इमोशनल होकर कहा जाता है तो सुनने वाले का भी इमोशनल माइंड एक्टिव हो जाता है जो कि 90% होता है। जब एक लाजिकल बात इमोशनल होकर कही जाती है तो वह कहने वाले के पूरे वुजूद से निकलती है और सुनने वाले के पूरे वुजूद में दाख़िल हो जाती है। इसी को आम ज़ुबान में दिल जीतना कहते हैं। यह एक फ़न होता है। इसे सीखा और सिखाया जा सकता है। मौलाना इस फ़न के माहिर उस्ताद थे। वह अपने शागिर्दों को इसकी तालीम देते थे और इसे करके भी दिखाते थे।
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी ने जब उनकी पत्रिका मार्गदीप पढ़ी तो उन्होंने ख़त लिखकर उन्हें मिलने के लिए हरिद्वार बुलाया। मौलाना ने मुझे बताया कि मैंने पंडित जी से कहा-'पंडित जी! आप तो सब जानते हैं। क्या आप भी मेरा साथ नहीं देंगे?
यह कहकर मैं रो पड़ा। मुझे रोता देखकर पंडित अपनी कुर्सी से खड़े हो गये और उन्होंने मुझसे कहा-'मौलाना आप काम कीजिए। मैं आपका साथ दूंगा।' उसके बाद उनकी पत्रिका 'अखण्ड ज्योति' में मूर्ति पूजा के खण्डन में और एकेश्वरवाद के समर्थन में लेख आये। उन्होंने इस्लाम की प्रशंसा में भी लेख लिखे। जिनसे समाज के सामने सत्य आने लगा था। ऐसा तब तक हुआ जब तक यह मशहूर न हो गया कि पंडित जी ने साधना के लिए समाधि ले ली है।
जो लोग मौलाना की किताबें पढ़ चुके हैं या शाँति और सद्भाव के तरबियती कैम्प कर चुके हैं, वे यह जान चुके हैं कि सब लोगों को 'क्या' बताना है?
इस वाक़ये से आप अब यह भी जान सकते हैं कि मौलाना उन बातों को 'कैसे' बताते थे!
...और कहीं कहीं तो सिर्फ़ एक लाईन ही बोलते थे और सुनने वाला मौलाना के साथ जुड़ जाता था।
मौलाना 'दिल से' बताते थे। जिसकी वजह से उनकी बात सुनने वाले के दिल में उतर जाती थी। मैं दीनी और कल्याणकारी प्रचार करने वाले सभी भाई बहनों से रिक्वेस्ट करता हूँ कि आप सभी 'दिल से' बताने के इस तरीक़े की ख़ूब प्रैक्टिस कर लें।
जब एक बात लाजिक पर पूरी होती है तो वह लाजिकल माइंड को अपील करती है जो कि 10% है। जब उसी बात को इमोशनल होकर कहा जाता है तो सुनने वाले का भी इमोशनल माइंड एक्टिव हो जाता है जो कि 90% होता है। जब एक लाजिकल बात इमोशनल होकर कही जाती है तो वह कहने वाले के पूरे वुजूद से निकलती है और सुनने वाले के पूरे वुजूद में दाख़िल हो जाती है। इसी को आम ज़ुबान में दिल जीतना कहते हैं। यह एक फ़न होता है। इसे सीखा और सिखाया जा सकता है। मौलाना इस फ़न के माहिर उस्ताद थे। वह अपने शागिर्दों को इसकी तालीम देते थे और इसे करके भी दिखाते थे।
लाजिकल माइंड को मेल माइंड और इमोशनल माइंड को फ़ीमेल माइंड भी कहते हैं। इन्हीं को कॉन्शियस माइंड और सबकॉन्शियस माइंड भी कहते हैं। ये एक ही माइंड के दो पहलू (aspects) हैं। जब मेल माइंड और फ़ीमेल माइंड दोनों एक दूसरे की हारमोनी में काम करते हैं तो बड़े चमत्कार होते हैं। मेल माइंड सही-ग़लत को और नफ़ा-नुकसान को तोलता है। यह तर्क और अनुभव की बुनियाद पर यक़ीन तक पहुंचता है और बेहतर का चुनाव करता है। इसका यक़ीन जीवन को दिशा देता है जैसे कि पानी के जहाज़ का कप्तान उसकी दिशा तय करता है और अपने अधीन दल (crew) को आदेश देता है।
फ़ीमेल माइंड क्रिएटिव माइंड है। यह मेल माइंड के यक़ीन (conviction) को आदेश की तरह क़ुबूल करता है और दल (crew) की तरह उसके आदेश का पालन करता है। इसमें औरत की तरह क्रिएटिव पावर होती है। जैसे एक औरत बच्चे को जन्म देती है, वैसे ही फ़ीमेल माइंड ज़िन्दगी में उन हालात और वाक़यात को जन्म देता है, जो मेल माइंड के यक़ीन का आईना होते हैं। जो लोग मेल माइंड और फ़ीमेल माइंड में तालमेल बैठाकर काम करते हैं, वे दुनिया की दिशा और दशा बदल देते हैं। उनका यक़ीन उनकी ज़िन्दगी में और उनके गुज़रने के बाद भी लगातार असर डालता रहता है और दुनिया के हालात उनके नज़रिए की अनुकूलता में ख़ुद बदलते रहते हैं। सूफ़ी लोग ऐसे अज़ीम इंसान को 'अहले यक़ीन' बोलते हैं। मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह एक ऐसे ही अहले यक़ीन बुज़ुर्ग थे।
मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ने सूफ़ी सिलसिले की तालीम अपने चाचा हुज़ूर से ली थी। वह सूफ़ी तरीक़े से रब के ज़िक्र की हमेशा पाबंदी करते थे। अपनी उम्र के आख़री वक़्त तक वह ऐसा करते रहे। एक बार मौलाना ने मुझसे कहा कि मेरे शैख़ (यानि चाचा हुज़ूर) ने मुझे जो ज़िक्र तालीम किया था, मैंने उसे ज़िन्दगी में एक दिन भी क़ज़ा न किया यानि एक दिन भी नहीं छोड़ा।
सूफ़ी सिलसिले का सबसे आख़री सबक़ अल्लाह के साथ होने का मुराक़बा (ध्यान) करना है। लगातार कुछ हफ़्ते यह मुराक़बा करने से आदमी के दिल से ग़फ़लत दूर हो जाती है और उसे बिना कोशिश किए भी यह हमेशा यह होश रहता है कि 'अल्लाह मेरे साथ है और वह मुझे रहमत की नज़र से देख रहा है।' इस हक़ीक़त के प्रति लगातार सजग (बाहोश) रहने का नतीजा यह होता है कि जब इंसान सोता है तब भी उसका दिल जागता रहता है। उसके दिल में इस हक़ीक़त का एहसास सोने के बाद भी क़ायम रहता है। जब यह होश दिल में क़ायम हो जाता है तो सूफ़ी सिलसिले में इंसान को अल्लाह की विलायत (दोस्ती) नसीब हो जाती है। अब उसे दूसरे ग़ाफ़िल इंसानों को होशमंद बनाने की तालीम देने के लायक़ माना जाता है।
मैंने मौलाना को बरसों ख़ुशी और ग़म के हालात में देखा। मैंने उन्हें कभी ग़ाफ़िल न देखा, हमेशा उन्हें बाहोश देखा। मैंने उन्हें हमेशा ज़िक्र और फ़रमांबरदारी, दावत और तब्लीग़, सेवा और परोपकार के काम में लगे हुए देखा। जो वह सिर्फ़ अल्लाह की रज़ा के लिए करते थे। उनके पास जाने के बाद हमारे दिल से ग़फ़लत दूर हो जाती थी। वह अपने पास आने वालों की तालीम विलायत के सबक़ से शुरू करते थे। सूफ़ी सिलसिले में जो सबक़ आख़री है, वह उनका पहला सबक़ होता था।
मुराक़बे (ध्यान) का जो तरीक़ा वह बताते थे, वह भी सूफ़ी सिलसिलों के परम्परागत तरीक़े से अलग है। इसके लिए वह क़ुरआन और सज्दे (साष्टांग) के ज़रिए बाहोश (जागरूक) होना सिखाते थे।
मौलाना क़ुरआन मजीद की कुछ आयतें पढ़ते थे जिनमें उसकी रहमत और क़ुदरत का बयान है, जिनमें यह ज़िक्र है कि वह हमेशा हमारे काम बनाता है और उसी ने हमें माँ की कोख में बनाया है। वह यह आयत हमेशा पढ़ते थे: 'हुवल्लज़ी युसव्विरुकुम फ़िल अर्हामि क़ैइफ़ा यशा' यानि वही (रब) है जिसने तुम्हें तुम्हारी माँओं के गर्भ में जैसा चाहा बनाया।'
फिर मौलाना इन आयतों की जज़्ब और कैफ़ियत के साथ जो भावपूर्ण व्याख्या करते थे, वह सिर्फ़ वही कर सकते थे। वैसी व्याख्या (तफ़्सीर) मैंने उनसे पहले न कभी सुनी थी और न ही उनके बाद किसी से सुनी। मौलाना कहते थे कि जब तुम अपनी माँ के पेट में बन रहे थे, तब भी वह तुम्हारे साथ था और वह तुम्हारी क़ब्र में भी तुम्हारे साथ रहेगा।
इस तफ़्सीर की एक ख़ासियत यह होती थी कि मौलाना इसमें वेद मंत्र और गीता के श्लोक बोलकर उनकी व्याख्या भी करते थे। इस तरह उनके बोल एक ही वक़्त में क़ुरआन की तफ़्सीर भी होते थे, वेद का भाष्य भी होते थे और गीता की टीका भी होते थे। जब उनकी मजलिस में सिर्फ़ मुस्लिम ही होते थे। वह तब भी यही करते थे। जब उनकी मजलिस में सौ लोग होते थे। वह तब भी यही करते थे और जब उनके साथ मैं अकेला शागिर्द होता था, वह तब भी यही करते थे। वह जब इस आयत को पढ़ते थे तो वह वेद मंत्र का यह अंश भी पढ़ते थे: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: अर्थात् सच्चा चित्र वह है जो सुनता है।
मौलाना कहते थे कि तुम सच्चा चित्र हो, तुम सुन सकते हो, तुम ईश्वरकृत मूर्ति हो। तुम्हें ईश्वर ने ख़ुद बनाया है। तुम ख़ुद को देखो और अपने बनाने वाले को पहचानो। तुम जो मूर्तियाँ बनाते हो, वे बेजान मूर्तियाँ हैं। वे सुन नहीं सकतीं। वे सच्ची मूर्तियाँ नहीं हैं। झूठी मूर्तियों को छोड़ो और अपने ईश्वर की बनायी सच्ची मूर्ति को, अपने आप को देखो। तुम ईश्वर की सच्ची मूर्ति हो। तुम्हें ईश्वर की मूर्ति देखनी है तो अपने दर्शन करो। आत्म दर्शन के लिए वह हमें सज्दा (साष्टांग) करना सिखाते थे और तब वह गीता का एक श्लोक पढ़ते थे।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्।।6:13।
अर्थात् शरीर, सिर और गर्दन को समान और अचल धारण किये हुए स्थिर होकर अपनी नासिका के अग्र भाग को देखो अन्य दिशाओं को न देखते हुए।
गीता के जितने भाष्यकार हुए हैं, उनमें से आज तक किसी का ध्यान इस तरफ़ नहीं गया कि 'संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं' यानि 'अपनी नाक के अगले हिस्से को देखने' के लिए साष्टांग आसन सबसे ज़्यादा सही, सहज और असरदार है।
इस वक़्त वह अल्लाह की मुहब्बत का एहसास करके रो रहे होते थे। सबकी आँखों में नमी और दिल में नर्मी होती थी। दिल भी एक इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस की तरह है। जैसे एक मोबाईल दूसरे मोबाईलों से कनेक्ट होकर अपना डेटा उनमें ट्राँसफ़र कर देता है, वैसे ही मौलाना अपने दिल को दूसरों के दिलों से कनेक्ट करके अपने विचार और भावना उनमें ट्राँसफ़र करते थे। सबके दिल अल्लाह की मुहब्बत से भर जाते थे। जो हाल मौलाना के दिल का होता था, वही सबके दिलों का हो जाता था। हम सब उसी पल महसूस करते थे कि हाँ, अल्लाह हमारे साथ है। उस पल हमारा दिल ख़ुशी और सुकून से भर जाता था और वह डर व ग़म से आज़ाद हो जाता था। हमें लगता था कि हमारा दिल जन्नत में है।
फ़द्ख़ुली फ़ी इबादी। वद्ख़ुली जन्नती'
अत: मेरे बन्दों में दाख़िल हो जा। और दाख़िल हो जा मेरी जन्नत में।" (पवित्र क़ुरआन 89:29-30)
मौलाना की सोहबत में दाख़िल होने के बाद इस हुक्म का मतलब समझ में आ जाता था।
हक़ीक़त यह है कि जन्नतें (बाग़) दो हैं। (देखें सूरह रहमान 46)
हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने अपनी मिसाल अंगूर की सच्ची बेल से दी है-
मैं अंगूर की सच्ची बेल हूँ। -यूहन्ना 15:1
मौलाना रामपुर के अंगूरी बाग़ मुहल्ले में रहते थे। अंगूरी बाग़ नाम अपना अर्थ ख़ुद बता रहा है। मौलाना रामपुर शब्द का अर्थ जन्नत करते थे। उनके बोल से पता चलता है कि जिस शहर में वह रहते थे, वह उसे किस नज़र से देखते थे। क़ुदरत (तक्वीन) का एक पोशीदा राज़ यह है कि आप जिस नज़र से चीज़ों को देखते हैं, वे आपके लिए उसी रूप में ढल जाती हैं।
हक़ीक़त यह है कि इंसान एक पेड़ है। Respiration, Nutrition, Excretion और Reproduction; जो कुछ पेड़ में है, वह सब इंसान में है। रब पर ईमान रखने वाले मोमिन उम्दा फल देने वाले पेड़ हैं। ये चलते फिरते सायादार पेड़ हमें इसी दुनिया में नसीब हैं। मौलाना के साए में बैठकर हमें ऐसा लगता था जैसे कि रब ने अपनी जन्नत हमारे क़रीब कर दी हो। तब यह दुनिया और दुनिया की ज़िन्दगी हमारे लिए एक नया अर्थ और एक नई ज़िम्मेदारी बन जाती थी। जब हमारा नज़रिया बदलता है, तब ऐसा ही होता है। माइंड साइंस इसे पेराडाइम शिफ़्ट (paradigm shift) कहती है। मैं इसे क़ुरआन की ज़ुबान में नाम दूँ तो शाकिलह बदलने का नाम दूँगा। मौलाना अपनी सोहबत (सत्संग) से इंसान का पेराडाइम (शाकिलह) ही बदल देते थे। मज़े की बात यह है कि इसमें हमें कुछ 'करना' नहीं पड़ता था, यह सब ख़ुद हो जाता था। जब एक इंसान का शाकिलह बदल जाता है तो उसका अमल ख़ुद बदलता है क्योंकि हरेक इंसान का अमल उसका शाकिलह ही तय करता है।
हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने अपनी मिसाल अंगूर की सच्ची बेल से दी है-
मैं अंगूर की सच्ची बेल हूँ। -यूहन्ना 15:1
मौलाना रामपुर के अंगूरी बाग़ मुहल्ले में रहते थे। अंगूरी बाग़ नाम अपना अर्थ ख़ुद बता रहा है। मौलाना रामपुर शब्द का अर्थ जन्नत करते थे। उनके बोल से पता चलता है कि जिस शहर में वह रहते थे, वह उसे किस नज़र से देखते थे। क़ुदरत (तक्वीन) का एक पोशीदा राज़ यह है कि आप जिस नज़र से चीज़ों को देखते हैं, वे आपके लिए उसी रूप में ढल जाती हैं।
हक़ीक़त यह है कि इंसान एक पेड़ है। Respiration, Nutrition, Excretion और Reproduction; जो कुछ पेड़ में है, वह सब इंसान में है। रब पर ईमान रखने वाले मोमिन उम्दा फल देने वाले पेड़ हैं। ये चलते फिरते सायादार पेड़ हमें इसी दुनिया में नसीब हैं। मौलाना के साए में बैठकर हमें ऐसा लगता था जैसे कि रब ने अपनी जन्नत हमारे क़रीब कर दी हो। तब यह दुनिया और दुनिया की ज़िन्दगी हमारे लिए एक नया अर्थ और एक नई ज़िम्मेदारी बन जाती थी। जब हमारा नज़रिया बदलता है, तब ऐसा ही होता है। माइंड साइंस इसे पेराडाइम शिफ़्ट (paradigm shift) कहती है। मैं इसे क़ुरआन की ज़ुबान में नाम दूँ तो शाकिलह बदलने का नाम दूँगा। मौलाना अपनी सोहबत (सत्संग) से इंसान का पेराडाइम (शाकिलह) ही बदल देते थे। मज़े की बात यह है कि इसमें हमें कुछ 'करना' नहीं पड़ता था, यह सब ख़ुद हो जाता था। जब एक इंसान का शाकिलह बदल जाता है तो उसका अमल ख़ुद बदलता है क्योंकि हरेक इंसान का अमल उसका शाकिलह ही तय करता है।
होश और ग़ौरो-फ़िक्र (सजग चिन्तन) के साथ किया गया एक सज्दा आपको उन हज़ार जगहों से ऊपर उठा देता है, जहाँ आप ख़ुद को अकेला और कमज़ोर मानकर झुके हुए हैं।
यह एक सज्दा जिसे तू गिराँ समझता है
हज़ार सज्दे से देता है आदमी को नजात
-अल्लामा इक़बाल
मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह जब सज्दा यानि साष्टांग आसन करना सिखाते थे तो वह ऐसा न करते थे कि बस सज्दा करके दिखा दें, जैसे कि हमें नमाज़ सिखाने वाले आलिम करके दिखाते हैं और हमें ज़िन्दगी भर उस मारिफ़त और एहसास से महरूम कर देते हैं, जो सज्दे के वक़्त हमारे दिल में होना ज़रूरी है। अगर वह होता तो आज हमें सज्दे में ज़्यादा लुत्फ़ और आनंद मिल रहा होता। हम ख़ुद ज़्यादा पावरफ़ुल पाते। हम अपने हालात से हारने के बजाय उन पर ग़ालिब आ जाते।
मौलाना सज्दा करने से पहले खड़े होकर यह बताते थे कि बाडी की भी एक लैंग्वेज है। हम अपनी मुद्राओं से भी अपने रब से बहुत कुछ कहते हैं। जब हम अपने रब के सामने खड़े होते हैं तो हम अपने खड़े होने से कहते हैं कि जो हुक्म आपने दिए हैं, जो ज़िम्मेदारियां मुझे दी हैं, मैं उन्हें पूरा करने के लिए खड़ा हूँ। मैं इन्हें अपनी शक्ति से नहीं, आपकी शक्ति से और आपकी मदद से ही कर सकता हूँ।
फिर वह घुटने टिकाते हुए समझाते थे कि इसका मतलब यह है कि मैं चलने की शक्ति तुझे अर्पित करता हूँ कि कभी ग़लत राह न चलूंगा, हमेशा तेरी बताई सीधी राह चलूंगा। फिर वह दोनों हाथ ज़मीन पर रखते थे कि इसका मतलब यह है कि मैं अपनी करने की शक्ति तुझे अर्पित करता हूँ। मैं इन हाथों से कभी कोई ग़लत काम न करूंगा। हमेशा भलाई के काम ही अपने हाथों से करूंगा।
जब हम अपने रब के सामने अपनी नाक टिकाते हैं तो हम अपने अहंकार को समर्पित करते हैं कि हम अपने घमण्ड न करेंगे, जो हमें तुझसे अलग करता है। जिसकी वजह से हम तुझे भूल जाते कि तू हमारे साथ है।
फिर जब वह ज़मीन पर अपना माथा रखते थे तो कहते थे कि ऐसा करके हम अपने रब से कहते हैं कि मैं अपनी बुद्धि और अपना तुझे अर्पित करता हूँ। मैं इन पर नहीं बल्कि तेरे सत्य ज्ञान पर चलूंगा, जो तूने नबियों पर उतारा और जो ऋषियों ने बताया है। मैं तेरा आज्ञाकारी हूँ। मैं तेरी आज्ञा के सामने अपना सिर झुकाता हूँ।
अब वह सज्दे में जाकर अपने रब की तस्बीह करते थे: सुब्हाना रब्बियल आला, सुब्हाना रब्बियल आला, सुब्हाना रब्बियल आला; तो वह हिंदी में इसका बहुत मनमोहक अनुवाद भी करते थे अर्थात् जय हो महाप्रभु। वह ऐसे ही अपने लेक्चर में ज़रूरत के मुताबिक़ लगातार उर्दू, हिन्दी, इंग्लिश, अरबी, फ़ारसी, संस्कृत और दूसरी जुबानों के अल्फ़ाज़ बहुत ख़ूबसूरती से इस्तेमाल करते थे।
मौलाना इस हालत में पहुंचने के बाद हमें बताते थे, इसका मतलब यह है कि ऐ रब! मैंने दुनिया की हर चीज़ से अपनी नज़र हटा ली है और तुझ पर जमा दी है।
गीता के छठे अध्याय के तेरहवें मंत्र में कहा गया है कि जब किसी दिशा में अवलोकन न हो, ऐसी दशा में अपनी नाक के अगले हिस्से पर ध्यान जमाओ। आप ऐसा करेंगे तो आप देखेंगे कि साँस ख़ुद अन्दर जा रहा है और फिर वह ख़ुद बाहर आ रहा है। आप कुछ देर आते और जाते हुए इस साँस को देखते रहें। साँस ख़ुद आ रहा है और वह ख़ुद ही बाहर निकल रहा है। आपका जीवन इसी साँस से चल रहा है। आप इसी साँस से पल रहे हैं। वही रब है जो इपको इस साँस से पाल रहा है। वह इस पल भी आपके साथ है।
सज्दे से सिर उठाकर मौलाना अपनी बात कहते थे और फिर सज्दे में सिर रखकर सबको सिखाते थे कि नाक पर ध्यान जमाकर कैसे महसूस करना है कि मेरा रब मेरे साथ है!
मौलाना यह भी कहते थे कि बचपन में माँ ने दूध पिलाया और बड़े होकर बाप की कमाई हुई रोटी खाई है। इन्हें देखकर आदमी सोच सकता है कि मुझे माँ ने पाला, मुझे बाप ने पाला लेकिन अपने श्वाँस प्रश्वास पर ध्यान दोगे तो आपको विश्वास आ जाएगा कि मेरा रब मुझे पाल रहा है। उसी ने मेरे माँ-बाप के दिल में मेरी मुहब्बत डाली थी कि उन्होंने मुझे पाला।
सिर्फ़ सज्दे पर ही वह इतना ज़्यादा, इतना ज़्याद ज्ञान देते थे कि अगर उसे लिखा जाता तो दस किताबें तैयार हो जातीं। मैं दस किताबें बहुत कम करके कह रहा हूँ ताकि लोगों को अतिशयोक्ति (मुबालग़ा hyperbole) न लगे वर्ना सच यह है कि मौलाना की हर मजलिस की बातों को लिखा जाता तो तीन चार हज़ार किताबें तैयार हो जातीं। उनकी आम मजलिसें भी गहरे मोहकमाती और मुतशाबिहाती इल्म से भरपूर होती थीं और जब वह क़ुरआन मजीद का दर्स देते थे तो वह गहराई कितनी ज़्यादा बढ़ जाती थी, उसे बताने के लिए अल्फ़ाज़ काफ़ी नहीं हैं।
मैं जब उनसे मिला, तब 15 साल का टीन एजर था। मैं मौलाना की बात अच्छी तरह सुनता और समझता था लेकिन जैसे जैसे मैं ख़ुद क़ुरआन, बाइबिल, वेद, गीता, विज्ञान, दर्शन, सेल्फ़ हेल्प लिट्रेचर और ईस्ट वेस्ट की बुक्स पढ़ता गया तो मुझे मौलाना की बातों के दूसरे अनोखे आयाम (dimensions) भी नज़र आने लगे, जिन्हें मैं पहले न जानता था।
मैंने जाना कि सभी देशों के दीन-धर्म, दर्शन और संस्कृतियों के लोगों की समस्याओं के पीछे वास्तव में 'अपने कामों में मदद पाने का मसला' है। हरेक आदमी की शक्ति की एक सीमा है। जब वह सीमा आ जाती है और वह रोटी, कपड़ा, मकान, दवा, शिक्षा और जीवन साथी नहीं जुटा पाता या वह ज़ालिमों के सामने ख़ुद को बेबस पाता है या वह अपने जीवन में ऐसी ही कोई और समस्या जाने अन्जाने बुला बैठता है वह उसके हल के लिए 'ग़ैबी मदद' पाना चाहता है।
सेल्फ़ हेल्प के सभी महान गुरू इस बात पर एकमत हैं कि इंसान अपने कामों में ग़ैबी मदद पा सकता है, बस शर्त यह कि वह अपने सोर्स से, अपने क्रिएटर से जुड़ जाए। इसके लिए हरेक वेलनेस कोच अलग अलग तकनीक सिखाता है। मैंने अब्राहम हिक्स से लेकर वैज्ञानिक नील डोनाल्ड वाल्श तक सैकड़ों गुरूओं की तकनीक को पढ़ा तो मुझे पता चला कि अपने क्रिएटर से जुड़ने के लिए मौलाना का सिखाया सज्दे का यह तरीक़ा उन सबसे ज़्यादा इफ़ेक्टिव और आसान है। यही वजह है कि यह हर देश में, हर काल में और हर धर्म ग्रंथ में पाया जाता है।
मौलाना सज्दे में जाकर अपने पालनहार से अपने काम में मदद की दुआ करते थे। उनका काम क्या था?, उनका काम था लोगों भलाई की सीधी राह दिखाना, अपने तन-मन-धन से उनकी भलाई करना और उनके सुख-शांति के लिए, उनकी समस्याओं के हल होने के लिए दुआ करना। ख़ुशी की बात यह है कि उनकी दुआएं क़ुबूल भी होती थीं। आज हर धर्म के आदमी के सामने प्रार्थना स्वीकार होना बहुत बड़ा चैलेंज है। आज मुस्लिमों के सामने भी यह मसला है कि वे अपने मसले हल होने के लिए दुआ करते हैं लेकिन ज़िन्दगी की बुनियादी ज़रूरतों से जुड़े मसले भी अक्सर हल नहीं हो पाते। मौलाना की तालीम ऐसे सब लोगों का मसला हल कर सकती है। अब हर इंसान अपनी भलाई की दुआ कर सकता है और वह उसके जवाब में ग़ैबी मदद पा सकता है।
मौलाना ने एक ईद की रात में अपने रब से दुआ की कि मुझे मददगार दे। अगले ही दिन सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहिब ख़ुद उनके घर गए। उनके ज्ञान से मुतास्सिर हो गए। उनसे जुड़ गए। उनके लेक्चर्स को रिकार्ड किया। उन सब हवालों को चेक किया। उनकी रिसर्च को तहरीर करके दिल्ली लेकर गए। एक उर्दू अख़बार का एडिटर ने काफ़ी हील हुज्जत के बाद उसे पब्लिश करने पर राज़ी हो गया। उसने यह रिसर्च एक सीरीज़ में पब्लिश की। उस एडिटर ने इस सीरीज़ को नाम दिया 'अगर अब भी न जागे तो'। यह बहुत मशहूर हुई। लोगों की माँग पर इसे किताब की शक्ल दी तो यह काम भी सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहिब ने किया और इसकी छपाई के ख़र्च में अपने रूपये लगाए। दूसरे साथियों ने भी अपनी अपनी हैसियत के मुताबिक़ मदद की। ज़्यादा रूपया तारिक़ साहिब का लगा था। उसके बाद तारिक़ साहिब ने हिन्दी उर्दू में कई किताबें लिखीं। लोगों की भलाई और देश की एकता और अखंडता के इस महान काम में तारिक़ साहिब के दो लाख रूपये से ज़्यादा इन्वेस्ट हो गये, जो तारिक़ साहिब ने कभी वापस नहीं लिए। हाँ, और ज़्यादा देते गए। सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ साहिब पहले की तरह आज भी मौलाना के मिशन के तर्जुमान (प्रवक्ता) बनकर मौलाना के काम में मददगार बने हुए हैं और अपना जान-माल-वक़्त लगा रहे हैं। यह मौलाना की दुआ के क़ुबूल होने का वह सुबूत है, जिसे आप सब आज भी देख सकते हैं। मौलाना कहते थे कि तारिक़ मेरी ईदी है। अल्लाह ने मुझे तारिक़ को ईद के दिन दिया।
मौलाना की दुआ की क़ुबूलियत का एक वाक़या तारिक़ साहिब का बीमारी से शिफ़ायाब होना भी है। एक बार बीमारी उन पर इतना ज़्यादा हमलावर हुई कि उनकी जान को ख़तरा हो गया। मौलाना को पता चला तो उन्होंने तारिक़ साहिब की शिफ़ा के लिए दुआ की और अगले ही दिन से बीमारी घटने लगी, अल्हम्दुलिल्लाह!
ऐसे बेशुमार सच्चे वाक़यात हैं। उन सबको जमा किया जाए तो तीन चार किताबें तैयार हो जाएंगी। सब यह ज़रूर जानना चाहेंगे कि क्या करने से दुआ क़ुबूल होती है और हर मुराद पूरी होती है?
जब एक बन्दा सज्दे के रूप में अपने रब के सामने पूरा समर्पण करता है तो बन्दा उससे जुड़ जाता है। अपने रब से जुड़कर बन्दा पूरे विश्वास और इख़्लास (ख़ालिस दिल) से अपनी भलाई की जो दुआ करता है, वह दुआ ज़रूर क़ुबूल होती है। हरेक धर्म का नर नारी यह काम अपने घर पर ही कर सकता है और उसकी दुआ घर बैठे ही बिना किसी ख़र्च के क़ुबूल हो सकती है।
एक और रूहानी दीनदार बुज़ुर्ग ने भी तारिक़ साहब को यही तरीक़ा बताया। उन्होंने बताया था कि जब दो लोग मिलकर एक काम के लिए दुआ करते हैं तो वह काम हो जाता है। तारिक़ साहिब के पास एक हिंदू भाई आए। वह एक फैक्ट्री के मालिक थे। उनकी फ़ैक्ट्री के मज़दूर और कर्मचारी हड़ताल पर चले गए थे। उसकी फ़ैक्ट्री बंद हो गई। उस मालिक ने अपने मजदूरों को बहुत समझाया कि काम पर वापस लौट आओ लेकिन वे मज़दूर किसी भी तरह वापस लौटने के लिए तैयार नहीं थे। वह फ़ैक्ट्री मालिक सब उपाय करके नाकाम हो गया तो बहुत निराश हो गया। किसी ने उसे सलाह दी कि आप तारिक़ साहब के पास जाकर सलाह मशविरा करें। वह तारिक़ साहब के पास आया कि शायद वह कोई उपाय बता दें। तारिक़ साहब पहले उस फ़ैक्ट्री मालिक से काफ़ी देर तक दुनियावी तरीकों से मसला हल होने के बारे में बातें करते रहे और वह बताता रहा कि वह इन सब तरीकों से काम ले चुका है और अब कोई तरीक़ा उसके पास नहीं है। इस बीच चाय नाश्ता भी हो गया। कोई रास्ता न पाकर अब वह पूरी तरह निराश हो चुका था। जब वह उठकर चलने लगा और दरवाजे तक पहुंच गया, तब तारिक़ साहब ने कहा कि अभी एक उपाय और है। उसके चेहरे पर आशा जगी। उसने पूछा कि वह उपाय क्या है?
तब तारिक़ साहब ने उसे आधी रात के बाद तहज्जुद में एक अलग कमरे में पाक साफ़ होकर सज्दे में जाकर अपने पैदा करने वाले अजन्मे और अविनाशी परमेश्वर से प्रार्थना करने का तरीक़ा सिखाया। वह अरबी में सुब्हाना रब्बियल आला कहने से झिझक न जाए, यह सोचकर तारिक़ साहिब ने उसे संस्कृत में 'एकम् ब्रह्म द्वितीयो नास्ति, नेह, ना, नास्ते किंचन' अर्थात् एक ही ब्रह्म है, दूसरा नहीं है। नहीं है, नहीं है, ज़रा सा भी नहीं है।
तारिक़ साहब ने ख़ुद भी उसके लिए रात में उठकर सज्दे में दुआ की और दुआ का जवाब यह मिला कि ख़ुद ऐसे हालात बने कि आसानी से हड़ताल ख़त्म हो गई और उसकी फ़ैक्ट्री में पहले की तरह काम शुरू हो गया। वह फ़ैक्ट्री मालिक बहुत ख़ुश हुआ। उसने फ़ोन करके यह ख़ुशख़बरी दी। अल्लाह उस जगह भी अपने बन्दे को राह देता है, जहाँ सबको रास्ते बन्द नज़र आते हैं।
तारिक़ साहिब को इस तरीक़े पर इतना ज़्यादा विश्वास है कि उन्होंने यह तरीक़ा भारत के प्रधानमंत्री को भी सिखाया। यह उस वक़्त की बात है जब सन 1996 ई. में भाजपा ने लोकसभा में 161 सीटें जीत लीं तो सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते उस समय के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा जी ने अटल बिहारी वाजपेयी जी को सरकार बनाने के लिए निमंत्रित किया। वाजपेयी जी ने उस समय पहली बार प्रधानमंत्री पद के रूप में शपथ ली और उन्हें संसद में बहुमत साबित करने के लिए 2 हफ़्ते का समय दिया गया। वह हर समय सभी बड़े नेताओं के साथ बहुमत जुटाकर सरकार बनाने के तरीक़ों पर विचार कर रहे थे। तारिक़ साहिब को प्रेरणा हुई कि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी को एक अजन्मे अविनाशी परमेश्वर से मदद पाने का यह ख़ास तरीक़ा सिखा दें ताकि वे भाजपा की सरकार बनाने में सफल हो जाएं। तारिक़ साहिब ने कोशिश की तो एक ऐसा आदमी भी मिल गया, जिसने प्रधानमंत्री जी से उनकी मुलाक़ात का वक़्त ले लिया। मुलाक़ात के लिए सिर्फ़ पाँच मिनट दिए गए थे। जब तारिक़ साहब उस जगह पहुंचे तो वहां हज़ारों बड़े और छोटे नेता जमा थे। एक अलग जगह पर तारिक़ साहिब को ले जाया गया। जब वाजपेयी जी उनसे मिलने आए तो तारिक़ साहिब ने उन्हें सज्दे में दुआ का यही तरीक़ा बताया। तारिक़ साहिब ने उन्हें मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह की किताबें तोहफ़े में दीं। वाजपेयी जी ने मुस्कुराकर कहा- आप मुझे जन्नत में भेजना चाहते हैं।
वाजपेयी जी पंडित थे। पंडितों को ज़्यादा बताने की ज़रूरत नहीं होती। वे एक इशारे में ही पूरी बात समझ लेते हैं। वाजपेयी जी दिलचस्पी से तारिक़ साहिब से बात करते रहे। तारिक़ साहिब ने उन्हें याद दिलाया कि पाँच मिनट हो चुके हैं लेकिन वह लगातार बात करते रहे। बहुत ज़्यादा प्रेशर के वक़्त में भी वाजपेयी जी ने तारिक़ साहिब को आधा घंटा दिया। 13वें दिन वाजपेयी जी की सरकार गिर गई। जिससे पता चलता है कि वह इस तरीक़े से दुआ नहीं कर पाए होंगे। यह दुआ एक ऐसा हथियार है, जो हमेशा अपने निशाने पर वार करता है। ऐसे हथियार को वैदिक साहित्य में ब्रह्मास्त्र कहा जाता है। वास्तव में यही ब्रह्मास्त्र है।
यह वाक़या आपको बताने का मक़सद यह है कि आप यह जान लें कि समस्या किसी भी क़िस्म की हो और कितनी भी बड़ी हो, दुआ का यह तरीक़ा हमेशा काम करता है। यह एक आसान और बिना ख़र्च का तरीक़ा है, यह देखकर आप इसे हरगिज़ मामूली न समझें।
सज्दा आपके वुजूद को रब की अज़ीम रहमत आक्सीजन के लिए खोलता है। सज्दा आपके वुजूद की एक एक सेल को खोलता है। आपको पता नहीं है लेकिन यह सच है कि आपका वुजूद सेल्युलर लेवल पर बंद है।
आपकी सेल्स सिर्फ़ तभी ऑक्सीजन लेने में सक्षम होती हैं, जब वे खुली होती हैं, तब आपका
शरीर तो खुद को चंगा करने में सक्षम होता है। अगर सेल्स बंद हैं, वे ऑक्सीजन प्राप्त नहीं करेंगी और आपका
शरीर अपने आप ठीक नहीं हो पाएगा। यह एक आसान और समझ में आने वाली बात है।
...तो सेल्स बंद होने का क्या कारण बनता है? एक शब्द में कहें तो 'तनाव।'
यक़ीनन आपने तनाव के नुक़्सान के बारे में पढ़ा होगा लेकिन मुझे लगता है कि आपको सज्दे से हीलिंग की साईंटिफ़िक प्रोसेस को समझना है तो आपको तनाव के बारे में सेल्युलर बायोलोजिस्ट्स की ताज़ा रिसर्च को भी जानना चाहिए जिन्होंने कोशिकाओं के व्यवहार की स्टडी की है।
इस अवधारणा को अच्छी तरह समझने के लिए संक्षिप्त रूप में
आटोनोमिक नर्वस सिस्टम की पृष्ठभूमि समझना ज़रूरी है।
शरीर के आटोनोमिक नर्वस सिस्टम (ANS) दो मिनट ड में काम करता है: सिम्पैथेटिक नर्वस सिस्टम (sympathetic nervous system) और पैरा सिम्पैथेटिक नर्वस सिस्टम (para-
sympathetic nervous system)
आम हालात में हरेक सेल पैरा सिम्पैथेटिक नर्वस सिस्टम के प्रभाव में होती है।
सिम्पैथेटिक नर्वस सिस्टम खाना हज़्म करने, शरीर के सभी अंगों में ख़ून के बहने, लार
ग्रंथि के स्राव, न्यूट्रिएंट्स के जज़्ब होने और शरीर के विकास को कन्ट्रोल करता है।
पैरासिम्पेथेटिक नर्वस सिस्टम अंगों को सही से काम करने में सक्षम बनाता है। पैरा सिम्पैथेटिक नर्वस सिस्टम के तहत काम करते हुए कोशिका खुली होती है - यानि यह ऑक्सीजन रिसीव करने, खाना हज़्म करने, न्यूट्रिएंट्स को जज़्ब करने, कचरे और टाक्सिन्स को बाहर निकालने, सांस लेने, सेल को डिलाइड और मल्टीप्लाई करने में और वह सब करने में सक्षम है; जो हेल्दी सेल्स करती हैं। इस परिदृश्य में,
जबकि सेल खुली होती है, आक्सीजन काम करती है क्योंकि सेल ऑक्सीजन जज़्ब करने में सक्षम है।
औसत आदमी का शरीर ज़्यादातर वक़्त पैरासिम्पेथेटिक नर्वस सिस्टम के तहत काम करता है।
हालाँकि, दूसरा हिस्सा है- सिम्पेथेटिक नर्वस सिस्टम, जो तनाव की हालत में सक्रिय हो जाता है। जब आप तनावपूर्ण हालात में या
तनावग्रस्त मनोदशा में होते हैं तो सिम्पेथेटिक नर्वस सिस्टम काम करता है और आपकी सेल्स "आत्म-सुरक्षा" के लिए लड़ो या भागो (fight or flight) के मोड पर काम करती हैं।
कोई ख़तरनाक कुत्ता, हमलावर भैंसा या आपके चिड़चिड़े बॉस का आर्डर या जीवन साथी की धमकी जैसे कुछ बाहरी कारणों से ऐसा हो सकता है। इसे ट्रिगर कहेंगे,
जो आपके दिमाग़ में बदलाव करता है।
ट्रिगर वे भावनाएँ भी हो सकती हैं जिन्हें आप महसूस कर रहे हैं जैसे कि डर, ग़म, शक और मायूसी या वे विचार, जो आप सोच रहे हैं या वे पुरानी कड़वी यादें जिन्हें आप याद कर रहे हैं; वे सब ट्रिगर हैं।
जब आपका ऑटोनॉमिक नर्वस सिस्टम सिम्पैथेटिक मोड में चला जाता है,
आपके ख़ून का बहाव पेट, आंत और स्किन में कम होने लगता है; आपकी पुतलियां शिष्य फैल जाती हैं; आपकी सोचने की ताक़त सुस्त और फिर बंद पड़ जाती है। आपका ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है; ख़ून मांसपेशियों में दौड़ने लगता है और आपकै पूरा शरीर की एक एक सेल हाई अलर्ट में चली जाती है।
जब ऐसा होता है, तो आपकी कोशिकाएँ 'लड़ने या भागने' की तैयारी के लिए बंद हो जाती हैं ताकि हाथ पैर पूरी शक्ति से काम कर सकें।
ज़्यादातर समय, शरीर पैरासिम्पैथेटिक नर्वस सिस्टम के तहत काम करता है
और यह केवल तनाव के समय बंद पड़ता है। तब सिम्पैथेटिक नर्वस सिस्टम काम करता है। अगर आप
एक आधुनिक जीवन शैली जी रहे हैं तो आप निश्चित रूप से तनावपूर्ण हैं। अगर आप सादा ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं लेकिन किसी कारण से तनावपूर्ण हैं
, और आप के तहत काम करते हैं तो सिम्पैथेटिक नर्वस सिस्टम के तहत बार बार "लड़ो-या-भागो मोड" (fight or flight mode) में जाते रहते हैं। जिसमें आपकी सेल्स
ज़रूरत के मुताबिक़ ऑक्सीजन रिसीव करने के लिए बंद और असमर्थ हो जाती हैं।
ऐसे समय आप हवा से या किसी और तरह जो ऑक्सीजन लेते हैं, वह आपके ख़ून में ही घूमती रहती है। उस ऑक्सीजन से आपकी सेल्स लगातार महरूम रहती हैं। आपकी बॉडी सेल्स उस ऑक्सीजन को रिसीव नहीं करतीं। और जब आपकी सेल्स लगातार ऑक्सीजन से वंचित रहती हैं, तो आप अपने शरीर में एक ऐसा माहौल बनाते हैं जो किसी बीमारी के जीवाणुओं के पनपने के लिए अनुकूल होता है। किसी बीमारी के जीवाणु ऑक्सीजन की कमी के माहौल में ही पनपते हैं।
नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. ओट्टो वारबर्ग ने एक बार कहा था, “एक सेल को उसके ऑक्सीजन लेवल में 35% कमी करके 48 घंटे के लिए छोड़ दें
तो यह कैंसर सेल बन सकती है। ”
“Deprive a cell 35% of its oxygen for 48
hours and it may become cancerous.”
अगर सेल कम समय के लिए इस हालत में रहती है तो जीवन में तनाव शायद ही कभी स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बनता हो लेकिन अगर सेल
लम्बे समय के लिए बंद, लड़ो या भागो मोड में रहती है तो यह एक बीमार सेल बन जाती है। इसका मुख्य कारण
ऑक्सीजन की कमी है। जब आप तनावपूर्ण स्थिति या तनावग्रस्त मनोदशा में लम्बे समय तक बने रहते हैं तो यह अपने शरीर को उस तत्व से वंचित करना है; जो उसे ख़ुद को क़ायम और हेल्दी रखने के लिए ज़्यादा ज़रूरी है।
क्या अब आपके लिए यह कोई ताज्जुब की बात है कि तनाव को जानलेवा क्यों माना जाता है?
अब आप यह भी समझ सकते हैं कि आख़िर डाक्टर्स और अस्पताल बढ़ने के बावुजूद लगातार रोग और रोगी क्यों बढ़ते जा रहे हैं?
जो जितना बड़ा शहर है, उसमें उतने ही ज़्यादा रोगी क्यों हैं?
यह आम हालात का ज़िक्र है। जब दीन धर्म का प्रचारक अपने परिवार, अपने नगर, देश और दुनिया को उल्टे रास्ते पर चलते देखकर नर्क भोगते हुए देखता है तो वह बहुत ज़्यादा तनावग्रस्त हो जाता है। इसके बाद जब वह समाज को सुधारने की कोशिश करता है तो उस पर तरह तरह के आरोप लगते हैं, उसकी नीयत पर शक किया जाता है। कुछ लोग जान के दुश्मन भी बन जाते हैं। कोई नबी ऐसा नहीं हुआ, जिसकी जान लेने की कोशिश नहीं की गई। ऐसे जरायम करके लोग जब रब की सज़ा के हक़दार बन जाते हैं तो उन पर कभी भी रब का दण्ड अचानक पड़ने का विचार करके तनाव पैदा होता है। ऐसे में उसे तनाव के मारक हमले से बचाने के लिए बार बार गहरी शाँति की ज़रूरत पड़ती है, जो उसके तनाव को मिटाती रहे ताकि वह अपना कल्याणकारी दावती काम करने के लिए हेल्दी बना रहे।
सज्दा (साष्टाँग) गहरी शाँति की हालत में ले जाता है। हर ख़ास व आम की सबसे बड़ी ज़रूरत सज्दा पूरी करता है। सुबह शाम, दिन और रात में बार बार सज्दा करने की ज़रूरत है। नबियों की उम्दा सेहत और ताक़त का एक बड़ा ज़रिया सज्दा होता है। मौलाना शम्स नवेद उस्मानी रहमतुल्लाहि अलैह ने सब धर्म के लोगों को सज्दा (साष्टांग) सिखाकर सब पर इतना बड़ा उपकार किया है, जिसे ठीक से समझा जाना ज़रूरी है। तन-मन-धन और फ़िज़िकल रिएलिटी पर सज्दे के असर को इसलिए भी समझना ज़रूरी है क्योंकि यह रेजिस्टेंस (बाधा) को दूर करता है जो आपके मन की मुराद पूरी होने से रोकता है।
.....जारी
main ne dekh liya hai..print nikalwane ka irada hai...aap poora kar len..aap ke liye sab se zyada 10se 15 pages diye jasakte hain..kuch edit karna ..hoga tariq sb. ke mashwire se..tariq ka article 7..8 page ka hai...baqi short hain...Allah aap ko sehat de...
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